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ख़ूबसूरत है आज भी दुनिया

माधव कौशिक

प्रकाशक : भारतीय ज्ञानपीठ प्रकाशित वर्ष : 2012
पृष्ठ :112
मुखपृष्ठ : सजिल्द
पुस्तक क्रमांक : 8581
आईएसबीएन :9788126330966

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माधव कौशिक का नौवाँ ग़ज़ल-संग्रह

Khoobsurat Hai Aaj Bhi Duniya (Madhav Kaushik)

निवेदन

‘ख़ूबसूरत है आज भी दुनिया’ मेरा नौवाँ ग़ज़ल-संग्रह है। इस संग्रह के प्रकाशित होने तक साहित्यिक परिदृश्य में अनेक परिवर्तन आ चुके हैं। संचार क्रान्ति के इस युग में संम्पूर्ण विश्व का साहित्य आपकी हथेली के नीचे कम्प्यूटर माउस की एक ‘क्लिक’ पर उपलब्ध है। यही वजह है कि भाषायी तथा साहित्यिक संकीर्णताएँ निरन्तर क्षीण होती जा रही हैं। समय ने यह सिद्ध कर दिया है कि विधाएँ भाषा की नहीं साहित्य की होती हैं। यही कारण है कि आज हिन्दी ग़ज़ल को उर्दू-फ़ारसी की काव्य-विधा मानकर दोयम दरजे की नहीं समझी जाती। कविता की अन्य विधाओं की तरह ग़ज़ल का मुख्य सरोकार भी युगीन यथार्थ तथा युगीन सत्य का उद्घाटन है। अब इस काव्य-विधा के क्षितिज का विस्तार इतना अधिक हो चुका है कि ग़ज़ल के माध्यम से हम जीवन और जगत् की समस्त विसंगतियाँ, विद्रूपताएँ, सामाजिक उत्पीड़न, शोषण तथा संघर्ष की सभी जटिल स्थितियों-परिस्थितियों के अंकन के साथ-साथ मानव मन के सन्त्रास, कुंठा, अवसाद तथा हर्ष के सभी सूक्ष्म मनोभावों को अभिव्यक्त कर सकते हैं।

आज का समय इतिहास के सर्वाधिक संकटपूर्ण कालखंडों में से एक है। उपभोक्तावादी अपसंस्कृति तथा बाज़ारवाद का अजगर हमारे सम्बन्धों की सारी ऊर्जा तथा ऊष्मा को सोखने लगा है। भूमंडलीकरण तथा उदारवाद की आँधी ने मानवीय समाज के ताने-बाने को छिन्न-भिन्न कर दिया है। अन्तर्राष्ट्रीय आतंकवाद ने इस विषैले वातावरण को रक्तरंजित कर इसे और अधिक भयावह बना दिया है। ऐसी अराजक परिस्थितियों तथा दमघोंटू वातावरण में केवल सृजनशील रचनाकार ही अपने कलम जैसे नाज़ुक हथियार के साथ युद्ध के मैदान में डटे हैं। इन कलमकारों की अदम्य जिजीविषा तथा अटूट आस्था ही समाज का सम्बल बनती है।

‘खू़बसूरत है आज भी दुनिया’ संग्रह की ग़ज़लों में इन्हीं विषम तथा विकट स्थितियों में फँसे आम आदमी की आह और कराह के साथ उसके सपने, उसकी आशा-निराशा तथा उसके संघर्ष को वाणी देने की कोशिश की गयी है। मेरा मानना है कि इस सारे कलुष तथा कालिमा के बावजूद दुनिया का नैसर्गिक सौन्दर्य हमें जाने के लिए बाध्य करता है। संसार की इसी ख़ूबसूरती को बनाए रखने तथा बचाए रखने के लिए प्रत्येक सृजनशील साहित्यकार अपनी तरह से प्रयास करता है। इन गज़लों की प्रत्येक काव्य-पंक्ति में मानवता के हाहाकार के पार्श्व से उठते हुए मानव-मूल्यों के जयकार का स्वर भी सुनाई देगा। इसी घटाटोप अँधियारे को चीर कर आस्था, विश्वास तथा संघर्षशीलता का उजास आपको आग पर चलने के लिए विवश करता रहेगा।

अन्त में, मैं भारतीय ज्ञानपीठ तथा श्री रवीन्द्र कालिया का हृदय से आभारी हूँ जिनके सौजन्य से यह संग्रह आप तक पहुँच पाया है।

माधव कौशिक



हँसने का रुलाने का हुनर ढूँढ़ रहे हैं
हम लोग दुआओं में असर ढूँढ रहे हैं।

जब पाँव सलामत थे तो रास्ते में पड़े थे
अब पाँव नहीं हैं तो सफ़र ढूँढ़ रहे हैं।

अब कोई हमें ठीक ठिकाने तो लगाये
घर में हैं मगर अपना ही घर ढूँढ़ रहे हैं।

क्या जाने किसी रात के सीने में छिपी हो
सूरज की तरह हम भी सहर ढूँढ़ रहे हैं।

हालात बिगड़ने की नयी मंज़िलें देखो
सुकरात के हिस्से का ज़हर ढूँढ़ रहे हैं।

कुछ लोग अभी तक भी अँधेरे में खड़े हैं
कुछ चाय के प्यालों में गदर ढ़ूँढ़ रहे हैं।

माधव कौशिश का जीवन परिचय


जन्म : 1 नवम्बर, 1954 को भिवानी, हरियाणा में।
शिक्षा : एम.ए. (हिन्दी), बी.एड., अनुवाद में स्नातकोत्तर डिप्लोमा।
प्रमुख प्रकाशन : ‘आईनों के शहर में’, ‘किरण सुबह की’, सपने खुली निगाहों के’, ‘हाथ सलामत रहने दो’, ‘आसमान सपनों का’, ‘नयी सदी का सन्नाटा’, ‘सबसे मुश्किल मोड़ पर’, ‘सूरज के उगने तक’, ‘अंगारों पर नंगे पाँव’ (ग़ज़ल-संग्रह); ‘सुनो राधिका’, ‘लौट आओ पार्थ’ (खंड काव्य); ‘मौसम खुले विकल्पों का’, ‘शिखर सम्भावना के’ (नवगीत-संग्रह); ‘ठीक उसी वक़्त’ (कहानी-संग्रह); ‘खिलौने माटी के’, ‘आओ अम्बर छू लें’ (बाल साहित्य); ‘नवगीत की विकास-यात्रा’ (आलोचना); ‘हरियाणा की प्रतिनिधि कविता’ (सम्पादन) एवं दो पुस्तकों का अनुवाद।
सम्मान : विश्व हिन्दी सम्मेलन, नयी दिल्ली द्वारा ‘सहस्राब्दि सम्मान’ (2000), हिन्दी साहित्य सम्मेलन प्रयाग द्वारा ‘राजभाषा रत्न’ (2003), हरियाणा साहित्य अकादमी द्वारा ‘बाबू बाल मुकुन्द गुप्त सम्मान’ (2005), ‘अखिल भारतीय बलराज साहनी पुरस्कार’ (2006)।
सम्प्रति : राजभाषा अधिकारी, भारत सरकार। सचिव, चंडीगढ़ साहित्य अकादमी; संयोजक, हिन्दी परामर्श बोर्ड, राष्ट्रीय साहित्य अकादेमी, नयी दिल्ली।


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